“मुरझाई सी हिन्दी ”
कल फिर सपने में आई थी,कुछ मुरझाई सी हिन्दी।
मुझसे कुछ आस लगाई थी, कुछ मुरझाई सी हिन्दी।।
फल मेरे सबने लूट लिए, ना दिया सहारा थोड़ा।
सहमा सा मुझको अपनों ने, निर्लज्ज भीड़ में छोड़ा।
जो मेरे लोरी-गीतों से, बचपन में सुख से सोते,
अब वे भी उन्नत होने पर, मुझसे चिढ़ते से रहते ।
यह देख बहुत घबराई थी, कुछ मुरझाई सी हिन्दी।
कल फिर सपने में……………
तुलसी ने मंगल गाया था,और सूर ने दिया सलोना।
मीरा ने पिया प्रेम प्याला, रसखान सरस मन कोना।
केशव की रसिक प्रिया चाहे, या ‘बच्चन’ की मधुशाला।
सतसई ‘बिहारी’की गागर, या ‘उद्धव शतक’ निराला ।
यह देख बहुत हर्षाई थी, कुछ मुरझाई सी हिन्दी।
कल फिर सपने………………
विद्यापति के पद हों चाहे,या फिर कबीर की बाणी।
छाया ‘जयशंकर’ की चाहे,या फिर ‘इंशा’ की रानी।
हों ‘लोकरत्न’ से मनभावन, सरहपा स्वयंभू पावन।
दादूदयाल,रैदास यहां, या अक्क कुंभ,नंद,भूषण।
यह सोच बहुत हर्षाई थी,कुछ मुरझाई सी हिन्दी।
कल फिर सपने………………
हों ‘प्रकृति के सुकुमार’ यहां, या हो संघर्ष ‘निराला’ ।
हो प्रेमचंद सा जन- जीवन, या हो ‘दिनकर’ रस प्याला।
बाबा ‘नागार्जुन’ की चंपा, ‘हरिऔध’ रस-कलश वाला।
संस्मरण ‘महादेवी’ का कर, जप ‘प्रिय -प्रवास’ की माला।
यह सोच बहुत हर्षाई थी, कुछ मुरझाई सी हिन्दी।
कल फिर सपने………………
‘मैथिलीशरण’ ने राष्ट्र दिया, ऋतु आई थी ‘पद्मावत’ में।
‘भारतेन्दु’ इन्दु सम विकसित हैं, हिन्दी के सुन्दर उपवन में।
कह गए ‘प्रताप’ ‘बात’पटु सी , हिन्दी के शोभित कानन में।
रचकर इतिहास ‘राम’ जी भी ,बन गए अमर इस प्रांगण में।
इन सबको पा हर्षाई थी, कुछ मुरझाई सी हिन्दी।
कल फिर सपने में….…….………
‘राहुल’ ने यायावर बनकर, पथ इसका किया समुज्ज्वल।
‘यशपाल’ ने झूठा सच रचकर, इसको था दिया समुन्दर।
फिर कुछ ‘फ़िराक़’ की ग़ज़लों ने, इसका आंगन भर डाला।
‘निर्मला पुतुल’ ने भी रचकर, इसका अंचल सज डाला।
यह देख बहुत हर्षाई थी,कुछ मुरझाई सी हिन्दी।
कल फिर सपने में……………
अपनी परिचित मृदु शैली में, था किया वैचारिक लेखन।
अक्खड़ शिरीष के फूलों में, था दिया अलौकिक चिंतन।
अपने शब्दों के वाणों से, गोरों को ‘गुप्त ‘ ने बेध दिया।
अपनी रोमांटिक कविता से, था नित ‘नरेश’ ने प्रेम किया।
यह देख बहुत हर्षाई थी, कुछ मुरझाई सी हिन्दी।
कल फिर सपने में………………
वह कहां मेरे आराधक अब, यह सोच शिथिल होता मन।
जो मुझको देते थे स्वराज, भरते थे मुझमें जीवन।
मुझको न दिवस भर आशा है, मैं तो चाहूं संवेदन।
क्यों मुझको ठूंठ बनाते हो, सिरजो मुझमें कुछ जीवन।
यह सोच बहुत घबराई थी, कुछ मुरझाई सी हिन्दी।
कल फिर सपने में आई थी,कुछ मुरझाई सी हिन्दी,
मुझसे कुछ आस लगाई थी, कुछ मुरझाई सी हिन्दी।। – कवि जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान नैनीताल भीमताल में प्रवक्ता के रूप में कार्यरत हैं।
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मुरझाई सी हिन्दी -कविता -डॉ. हेम चंद्र तिवारी

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